भारत विभाजन के काल और समुदायों में परस्पर अविश्वास के घटनाक्रम पर भीष्म साहनी के उपन्यास तमस की याद बहुतों को होगी, जिन्हें नहीं होगी उनके लिए चर्चा कर लेते हैं फिर आगे बढ़ेंगे।
विभाजन की त्रासदी का सच है ‘तमस’
नाथू चमार अपनी दुकान में काम कर रहा होता है की ठेकेदार वहां आता है और कहता है की पास के सूअर बाड़े से एक सूअर लाकर मारो जिसे सबेरे जमादार ले जाएगा, मृत सूअर की जरूरत पशु डाक्टर को है। नाथू कहता है की वह मृत जानवरों की खालें खरीदता या निकालता है, उसके पास सूअर मारने की स्किल नहीं है। ठेकेदार रुआब में पांच रूपये दुकान में फेंकता है और यह कहते हुए चला जाता है की उसे सुबह मृत सूअर चाहिए ही। अब बेचारा गरीब क्या करे ? सुबह के वक्त कांग्रेस पार्टी के नेता बख्शी जी के साथ तमाम कार्यकर्ता मुस्लिम मोहल्ले में नालियों की सफाई और सद्भावना की अलख जगाने पहुँचते हैं जहाँ उनका स्वागत होता है और देशभक्ति की नारेबाजी होती है। एक बुजुर्ग मुसलमान कहते हैं की उन लोगों के वापस लौट जाने में ही भलाई है तब तक इस देशभक्त समूह पर पत्थरबाजी शुरू हो जाती है। पता चलता है की मस्जिद की सीढ़ियों पर किसी ने मरा हुआ सूअर फेंक दिया है। शहर में तनाव बढ़ता देख कांग्रेस के बख्शी जी और मुस्लिम लीग के हयात बख्श शहर के अंग्रेज अफसर के यहाँ जाते हैं जो फ़ोर्स लगाने की मांग पर आपस में मिल बैठ कर मसला सुलझाने को कहता है। अंग्रेज को इस बात की खुंदक है की हमीं से आज़ादी चाहिए और मदद भी हमसे मांग रहे हैं, जायें निपटाएं अपना मामला। उधर नाथू मस्जिद की सीढ़ियों पर मरे सूअर को देख आत्मग्लानि में पड़ जाता है। उसे लगता है की अपराधी वही है, ठेके पर जाकर दारु पीता है और घर के रास्ते में ठेकेदार दिख जाता है,ठेकेदार उसे पहचानने से इंकार कर देता है।
नाथू घर आकर अपनी बीमार माँ को पीठ पर लाद कर,गर्भवती पत्नी के साथ शहर से निकलता है क्योंकि हालात ठीक नहीं हैं, रस्ते में माँ मर जाती है जिसे जंगल में ही किसी तरह फूंक कर अपराधबोध के साथ आगे बढ़ता है। उधर दूसरे गाँव में अकेला सिख परिवार होने के कारण हरनाम सिंह अपनी बीवी के साथ अपना घर और चाय की दुकान छोड़ सिख बहुल गाँव में शरण लेने के लिए निकलते हैं, उनकी भी सारी संपत्ति फूंक दी जाती है। रात भर पैदल चलने के बाद हरनाम अपने मित्र एहसान अली के यहाँ शरण लेते हैं लेकिन एहसान के लड़के को यह ठीक नहीं लगता और उन्हें निकल जाने को कहता है। रास्ते में हरनाम की मुलाक़ात नाथू से होती है। काफी चलने के बाद ये एक गुरुद्वारे में शरण लेते हैं। जहाँ पता चलता है सामने मुसलमानों का बहुत बड़ा समूह हथियारों से लैस है और वह गुरुद्वारे में शरण लिए सिखों की सुरक्षा के नाम पर दो लाख रूपये मांग रहा है। ग्रंथी और नाथू जाते हैं मुसलमानों की भीड़ से सुलह करने और बवाल शुरू हो जाता है। सिख भी धार्मिक नारे लगाते हुए हथियार लेकर निकल पड़ते हैं और गुरुद्वारे की महिलायें अपने बच्चों को लेकर एक कुएं में कूदने लगती हैं। सरदार हरनाम सिंह अपनी पत्नी और नाथू की गर्भवती पत्नी कम्मो के साथ एक राहत शिविर में शरण लेते हैं और नाथू की तलाश शुरू करते हैं। शवों की भीड़ में कम्मो को अपने नाथू का शव भी मिल जाता है और वह दहाड़ मारने लगती है, इसी बीच उसे प्रसव पीड़ा शुरू होती है और नर्स उसे अस्पताल के तम्बू में ले जाती है, बाहर हरनाम और उनकी पत्नी बैठे हैं। भीतर से नवजात के रोने की आवाज़ आती है और दूर कहीं अल्ला हु अकबर और हर हर महादेव के नारे गूँज रहे हैं.इस लास्ट सीन से पहले —
अंग्रेज अफसर ने एक अमन कमेटी बना दी है और बख्शी जी तथा हयात बख्श उसके वाइस प्रेसिडेंट नियुक्त हो गए हैं। फैसला किया गया है की प्रशासन राहत/शरणार्थी शिविरों में अमन कमेटी को भेजेगा जो लोगों में अमन और भाईचारा वापस लाने का काम करेगी। पहली बस आ गयी है और हम देखते हैं की ड्राइवर के साथ ही ठेकेदार बैठा हुआ है जो अमन के नारे लगा रहा है, भाईचारे के गीत गा रहा है, वही ठेकेदार जिसे हमने सबसे पहले देखा था नाथू की दुकान पर।
अब आगे बढ़ते हैं, 1988 में गोविन्द निहलानी ने दूरदर्शन के लिए तमस सीरियल बनाया,रामायण के चलते दूरदर्शन अपनी जबरदस्त पहुँच बना ही चुका था।
प्रसारण होते ही निहलानी को धमकियाँ मिलने लगीं और उन्हें पुलिस सुरक्षा दी गयी। कई शहरों में इस सीरियल के विरोध में प्रदर्शन हुए, हैदराबाद में दूरदर्शन दफ्तर पर हमला हुआ। एक याचिका के आधार पर प्रसारण भी रुका हालाँकि बाद में अदालत के ही आदेश पर पुन: प्रसारण हो सका। तमस कुल छ: भाग में टीवी पर आया लेकिन जैसा कहा की वह टीवी का रामायण युग था।
टीवी का ‘रामायण’ युग राजीव गांधी की देन
रामायण सीरियल बनने की कहानी भी बहुत रोचक है क्योंकि वह राजीव गाँधी की निजी पसंद से टीवी पर आया था। इसकी कथा बहुत मशहूर हो चुकी है और तत्कालीन जिम्मेदार अधिकारियों की पुस्तकों में भी दर्ज है। दूरदर्शन सरकारी भोंपू के रूप में था या कहिये की गाँधी परिवार और सरकारी डाक्यूमेंट्री और सरकार के प्रचार का ही माध्यम था। आज जो लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया को कोसते हैं तो उसकी नींव उसी समय पड़नी शुरू हुई थी। आडवाणी गिन कर बतलाते थे की दिन में कितनी बार राजीव गांधी का नाम लिया जाता है तो डीएमके वाले करूणानिधि ने तो अपने यहाँ दूरदर्शन का बॉयकाट कर दिया था, ज्योति बासु को प्रेस कांफ्रेंस करके कहना पड़ा की दूरदर्शन सबके पैसे से बना है, यह कांग्रेस की जमींदारी नहीं है। लब्बोलुआब यह की देवी लाल, रामराव, ज्योतिबसु जैसे दिग्गज विपक्षी मुख्यमंत्रियों को भी एकदम फुटेज नहीं मिलती थी और राजीव गाँधी के सूचना प्रसारण राज्य मंत्री के.के.तिवारी ने सीना ठोंक कर कहा की ‘क्रेडिबिलटी केवल दिल्ली के काकटेल सर्किल का मुद्दा है’। दूरदर्शन के डीजी और आगे बढ़ गए क्योंकि उनका बयान था की मीडिया (दूरदर्शन) सरकार की ही एक भुजा है और हमारी प्राथमिकता सरकार की योजनाओं का प्रचार प्रसार ही है।
कथा है की राजीव जी ने शाम को दूरदर्शन खोला और कुछ देर में ही सूचना प्रसारण मंत्री को फोन किया की भारतीय परम्परा को बढ़ावा देने और अपने मूल्यों को स्थापित करने वाले रामायण और महाभारत जैसी रचनाओं पर भी कार्यक्रम होना चाहिए। यहीं से टीवी युग बदल गया,मंत्री जी ने अपने विभाग के सचिव गिल साहब को फोन लगाया क्योंकि खुद प्रधानमंत्री की तरफ से सलाह आई थी। न कोई टेंडर न ही पॉयलट एपिसोड की बात, सीधे गिल साहब ने बम्बई में अपने मित्र रामानंद सागर को फोन लगाया और रामायण पर सीरियल बनाने को कहा।
रामायण सीरियल सबकी पसंद बनता गया
यह राजीव जी के आधे कार्यकाल के बाद की बात है, इस समय तक शाहबानो प्रकरण पर संसद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट कर राजीव जी हिन्दुओं के एक वर्ग के निशाने पर थे जो उन्हें मुसलमान परस्त मानने लगा था। तब तक गाँव-देहात में तमाम घरों में रामचरित मानस के नियमित पाठ की परम्परा थी ही और मंदिरों में भी लोग हरिकीर्तन के लिए जुटते ही थे लेकिन ये लोग अपने आराध्य को लेकर उन्मादी नहीं थे। जगह जगह रामलीलाओं का भी आयोजन होता ही था जिसमें तमाम स्थानों पर मुसलमान कलाकारों से लेकर उस वर्ग के दर्शक भी रहते थे क्योंकि तब तक राम उन्माद नहीं वरन एक सांस्कृतिक विरासत की अगुआई करते थे। भारतीय समाज में टीवी का असर रामायण सीरियल से ही गहरा हुआ। गुजरात में वापी के पास बिपिन पटेल की काफी लम्बी चौड़ी प्रापर्टी में एक शानदार स्टूडियो था जिसका चयन किया गया देश की मानसिकता बदल देने में। उस दौर के बाद पैदा हुई पीढ़ी भले ही न समझ पाए लेकिन उस समय रामायण के प्रसारण के वक्त सड़कों पर सन्नाटा रहता था, तमाम जरूरी काम छोड़ कर लोग टीवी के बैठ जाते थे।
याद रहे की तब तक अंग्रेजों के जमाने से बंद राममंदिर का ताला खुल चुका था लेकिन लोग उस विवादित परिसर के लिए उन्मादी नहीं हुए थे। तुलसी की चौपाईयों से निकल कर रामायण का टीवी संस्करण मद्रास से लेकर दार्जिलिंग तक हिलोरे लेने लगा। मंद मंद मुस्कान के साथ टीवी वाले राम भारतीय जनता पार्टी के लिए माहौल बना रहे थे वर्ना पूरे देश में केवल भगवान राम के मंदिर बहुत कम मिलेंगे अगर शिव एवं कृष्ण के मंदिरों से तुलना करें तो। मस्जिद एवं चर्च की तरह हिन्दुओं को भी एक सर्वव्यापी राम मिल गए जिनका हर रविवार को इंतज़ार रहता था।
…लेकिन रामायण सीरियल कांग्रेस पार्टी के लिए घातक साबित हुआ
आप सोच कर देखिये की इस सीरियल के बगैर मंदिर आन्दोलन के लिए भीड़ खड़ी करना कितना मुश्किल रहता,यहाँ तक की आज के दौर में जब हिंदुत्व के उफान की चर्चा है तब,ऐसी भीड़ अयोध्या के नाम पर इकट्ठी नहीं की जा सकती,हाँ चुनावी रैलियों की बात अलग है क्योंकि वह राजनैतिक मुद्दा है। राजीव जी की तमाम परियोजनाओं का बहुत ही बुरा हश्र हुआ था और खुद उनकी जान भी ऐसी ही एक फेल योजना के चलते ही गयी थी लेकिन रामायण सीरियल तो कांग्रेस पार्टी के लिए भी घातक साबित हुआ। उन्हें लगा था की हिन्दू उन्हें शाबाशी देंगे लेकिन दांव उल्टा पड़ गया, यहाँ तक संभल गए रहते तो ठीक लेकिन सीरियल बंद हो जाने के बाद उन्होंने विवादित स्थान पर शिलान्यास की भी अनुमति दे दी जिसके बारे में प्रणव मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘ट्रबुलंट ईयर्स’ में लिखा है की वह फैसला एरर ऑफ़ जजमेंट और भरोसा तोड़ने वाला था। राजीव गाँधी के ताला खुलवाने और फिर शिलान्यास वाले फैसले से दो पक्षों के बीच जमीन का झगड़ा अब राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बन गया और इस विमर्श को गाढ़ा करने में बहुत बड़ी भूमिका रही रामायण सीरियल की। अब आप चाहे जो कहें लेकिन यह भी हो सकता है की यह सीरियल का प्रसारण एवं अयोध्या की घटनाओं को राजीव जी सकारात्मक लाभ लेना चाहते रहे हों लेकिन राजनीति में हर दांव सही नहीं पड़ते।
भाजपा का असल एजेंडा
आज राहुल गांधी के मंदिर दर्शन पर सवाल उठते हैं तब उनके प्रवक्ता मामला स्पष्ट करते हैं की राहुल जी जनेऊधारी शिव भक्त हैं, इस सफाई की जगह कांग्रेस प्रवक्ता की हिम्मत नहीं है की वह साफ़ कह सकें की राजीव जी ने अपने दूसरे लोकसभा चुनाव अभियान की शुरुआत अयोध्या से ही की थी और इस रणघोष के साथ की देश में राम राज्य लाया जायेगा। इस घोष की याद करिए और फिर रामायण सीरियल के जनमानस पर पड़ चुके प्रभाव की सोचिये। यह अलग बात है की चुनावी अभियान में राजीव जी की हत्या हो जाती है और देश में रामराज्य लाने का उनका सपना अधूरा रह गया, उनकी जगह अयोध्या भगवा बजरंगियों की कर्मभूमि बन गयी जहाँ से देश में भारतीय जनता पार्टी नामक एक ऐसे दल का उदय हुआ जिसे राममंदिर चुनाव के समय ही याद आता है और उसके वोटर हिलोरें मारने लगते हैं। जरा सोचिये की राजीव गाँधी मंदिर बनवाने में सफल हो गए रहते तो फिर भाजपा आज किस मुद्दे पर लड़ती ? विकास-उकास अपनी जगह है लेकिन आज टीवी पर चीखते एंकर भी जानते हैं की भाजपा का असल एजेंडा क्या है।
वही एजेंडा जिसकी काट खोजने के लिए राहुल जी गुजरात में मंदिर मंदिर दर्शन करते रहे,यह हर नागरिक, आस्थावान एवं नास्तिक का अधिकार है की वह वैध ढंग से कहीं भी आये जाए लेकिन मंदिर दर्शन का कार्यक्रम भाजपा को दुखी इसीलिए कर रहा था की वह इसे अपना राजनैतिक हथियार मानती रही है। अलग बात है की सोमनाथ में भी भाजपा हार गयी है लेकिन जब प्रतीकों की बात करें तो भाजपा का इस हथियार पर पहला अधिकार है ही जो राजीव गाँधी ने पहले चलाया या जन्मभूमि में सोये मुद्दे को उठाकर हवा दी।
अब पुन: बात करते हैं तमस की,रामायण की तरह तो नहीं फिर भी बहुतों ने उसे देखा ही होगा लेकिन असर क्यों नहीं हुआ? असर इसलिए नहीं हुआ की अमन कमेटी की जो बस चल रही है उसमें ड्राइवर के बगल में वही ठेकेदार बैठा है जिसे हम मानते हैं की शहर में आग लगाने का ठेका उसी का है लेकिन हम यह भी मान बैठे हैं की सड़क पर कट जाने या फिर दूर कहीं वीराने में बस जाने से अच्छा है की उसी बस में ही चला जाय जिसमें हमारे अपने अपने गुटों के बख्शी जी या हयात बख्श साहब बैठे हुए हैं, उनके साथ हम भी सुरक्षित रहेंगे। कितना गलत सोचते हैं हम क्योंकि वो तीनों तो दरअसल एक ही गुट के हैं जो मौका पाकर साथ ही उतर जायेंगे और बस हो जायेगी आग के हवाले। उन्हें फिर से नयी बस मिल जायेगी जिससे वो दूसरे राहत शिविर की तरफ निकल जायेंगे। अगर नहीं जली तो फिर आप क्या करेंगे ?टीवी देखेंगे? अब रामायण या तमस नहीं आता, वहां चौबीसों घंटे चलता है आप को ढालने का और अपने एजेंडे में लेकर भरमाये रखने का कार्यक्रम,उस कार्यक्रम को सीरियल नहीं वरन आजकल समाचार कहते हैं। टीवी वाला देश आज नहीं बना है,इसको बनाने में राजीव जी की मेहनत लगी है और उन्हीं के लगन से चढ़ी भाजपा आज इस टीवी वाले देश को भुना रही है। भाजपा को राहुल गांधी के साथ ही राजीव जी को भी धन्यवाद देना चाहिए वर्ना खाली सी प्लेन से कुछ नहीं हो सकता, वह तो वापस अपने हैंगर में चला गया होगा। हाँ आज टीवी देख कर भले ही महिलायें अपनी साड़ियाँ और नकली गहने खरीदती होंगीं, भाजपा को तो जमीन मिल गयी थी टीवी से। ऐसा कभी राजीव जी सोचे नहीं होंगे लेकिन क्या कर सकते हैं– होइहें सोई जो राम रचि राखा !